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Monday, October 1, 2012

संत के छक्के

बजती न  बाँसुरी, पायल  ना  बजती
बजती नहीं घंटी, विद्यालय ना खुलता

खुलता नहीं जो ज्ञान, मैल नहीं धुलता
धुलता ना मैल, नीर   नैन से टपकता

पकता है फल, टूट  धरती  पे गिरता
गिरता है शिशु, शनै: शनै: पग बढ़ता

बढ़ता है ज्वार, फ़ैल जाता जलाजल है
जल है  अपार,  धार होती  हलचल है

चल है सरिता झरनों की छलछल है
छल है  रहित, खगकुल  कलकल है

कल है भरोसा नहीं, काम आज करना
करना, ना डरना, ना  पग पीछे धरना

धरना ना पग पीछे  चलना है साथ-साथ
साथ-साथ काम करें, मिलके करोड़ों हाथ

हाथ एक से तो कभी ताली नहीं बजती
बजती खडग  अरि,  अरि  ललकारता

ललकारता है वीर  कितनों को मारता
मारता नहीं जो मन, वासना से हारता

‘तांक-झाँक’ करने से बिना बात बजती
बजती न बाँसुरी, तो पायल ना बजती

रचनाकार- डॉ. ब्रजपाल सिंह ‘संत’













स्वागत द्वार - 4087, रामनगर विस्तार, अशोक मार्ग,
             लोनी रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
दूरभाष- 09313074694


4 comments:

  1. वाह बहुत ही सरल सुंदर और प्रभावमयी

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  2. बहुत ही उत्कृष्ट रचना.......

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  3. डा.ब्रज पाल सिंह ’संत" उर्फ ’संत हास्यरसी’जी के छक्कों का भाव पक्ष ही प्रबल नहीं है,अपित कला पक्ष भी प्रभावशाली है.उनकी रचना की विशेषता यह है कि कविता की ज्यादातर पंक्तियां जिस
    शब्द से समाप्त होती हैं अगली पंक्ति उसी शब्द से शुरु होती है. संत जी को यहां देखकर बहुत अच्छा लगा.वे मेरे तो पुराने साथी हैं.

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!