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Monday, December 24, 2012

झोपड़पट्टी का भारतीय समाज के नाम पत्र



प्यारे भारतीय समाज

सादर अनजानस्ते!

खबरिया चैनलों की चिल्ल-पों से पता चला कि कुछ दिन पहले एक मासूम लड़की का कुछ मानवता के दुश्मनों द्वारा निर्दयतापूर्वक बलात्कार किया गया. सभी इसके लिए दोषारोपण करने में व्यस्त हैं. कोई कह रहा है कि इस घटना के लिए पुलिस जिम्मेवार है तो कोई सरकार को इसके लिए कोसने में मस्त है. अब उन्हें यह जाकर कौन समझाए, कि पुलिस तो अंग्रेजी काल से कठपुतली की भांति है, इसके धागे सरकार के हाथों में रहते हैं, जिसे सरकार अपने मन-माफिक नचाती रहती है. सबने अपने-अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाए, लेकिन समस्या के मूल में कोई नहीं पहुँच पाया. अब क्या छुपाना असल में ऐसी घटनाओं के लिए दोषी तो मैं अर्थात झोपड़पट्टी नामक कुलटा हूँ. मैंने अपने भीतर अपराधियों का एक छोटा-मोटा संसार बसाया हुआ है, जो निरंतर फल-फूलकर और अधिक मुस्टंडा होता जा रहा है. अब मुझसे पूछा जायेगा, कि आखिर मेरी उत्पत्ति कैसी हुई? तो सुनिए मेरी उत्पत्ति रोजगार की खोज में आए गरीबों द्वारा रहने के लिए ठिकाना बनाने के मकसद से हुई थी. धीमे-धीमे उन लोगों ने अपने-आप को वोट बैंक के रूप में विकसित कर लिया. वोट बैंक बनते ही झोपड़पट्टी यानि कि मैंने शहर में जगह-जगह जाकर कब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया. मैंने सभी को अपने भीतर छुपने की जगह दी. मैंने भारतीय, बांगलादेशी, नेपाली अथवा पाकिस्तानी होने के कारण किसी में भी भेद नहीं किया और न ही जाति या धर्म के आधार पर किसी से बैर-भाव रखा. मेरी इस सदभावना का गलत फायदा मेरे भीतर निवास करने वालों ने उठाया और मुझे देशद्रोही गतिविधियों का अड्डा बना दिया गया. शहर में जितने भी अपराध होते हैं, उनके लिए अधिकांशतः मुझमें निवास करने वाले प्राणी ही उत्तरदायी हैं. मुझमें रहने वाले जीवों पर कोई हाथ नहीं डाल पाता क्योंकि उन पर सरकार का वरदहस्त जो रहता है और वैसे भी सरकार को तो वोट बैंक से मतलब है. देश और समाज भाड़ में जाता है तो जाये क्या फर्क पड़ता है? मेरे निवासी भी खुद को सरकारी दामाद कहने में बड़ा गर्व अनुभव करते हैं. शहरवाले भी रोजगार देने से पहले झोपड़पट्टी वालों की जाँच-पड़ताल करवाने से कन्नी काटते हैं और जब झोपड़पट्टीवासी कोई वारदात करके इस शहर से लापता हो जाते हैं तो ये शहरी ही आसमान को सिर पर उठा लेते हैं. शहरवाले तो कुछ अबलाओं के बलात्कार पर बेकाबू हो जा जाते हैं, वे कभी झोपड़पट्टी में आकर देखें, वे पायेंगे कि यहाँ तो किसी न किसी अँधेरी झोपड़ी में अबलाओं का दिन दहाड़े नियम से बलात्कार होता है. उन अबलाओं की सुननेवाला कोई नहीं होता, क्योंकि वे बेचारी गरीब तबके से होती हैं और इस कारण वे इस नियमित बलात्कार को अपनी नियति समझकर स्वीकार कर लेती हैं. बहरहाल बलात्कार की घटना से देश के युवाओं में जो जाग्रति जागी है, वह देश के लिए एक अच्छा सन्देश है. कम से कम इस बहाने तो वे अपनी माँ-बहनों के साथ-साथ दूसरी नारियों का सम्मान करना तो सीख जायेंगे. रही बात बलात्कारियों को फाँसी देने की माँग तो जब संसद पर हमलाकर उसका बलात्कार करने और करवानेवाले पापी इस देश में मजे से दंड पेल रहे हैं, तो उन बलात्कारियों को इतनी जल्दी फाँसी भला कैसे हो जाएगी? सब अपने-आपको कोस रहे हैं, कि उन्होंने ऐसी सरकार को वोट क्यों दिया, जिसके राज में ऐसा कुकर्म हो रहा है. अब उन पगलों को यह बात जाकर कौन समझाए, कि वे वोट दें या न दें सरकार को तो जीतना ही है. सरकार को वोट मेरी छत्रछाया में पलनेवाले देते रहेंगे और वह बार-बार सत्ता सुख का आनंद लेती रहेगी. मेरे बच्चों को वोट की खातिर बिकने का अच्छा - खासा अनुभव है. सौ - दो सौ रुपयों या फिर एक दारू की बोतल में देश का भाग्य बेचना उन्हें अच्छी तरह आता है. मैं कभी-कभी अपने बच्चों के इस कमीनेपन पर दहाड़ें मारकर रोती हूँ. उस बेचारी की अस्मत को बस में तार-तार करने वाले कुकर्मी भी तो मुझमें ही निवास करने वाले थे. हालाँकि मेरे आँचल में कुछ भले मानव भी निवास करते हैं, लेकिन जब तालाब की अधिकतर मछलियाँ गंदी हो चुकी हों तो साफ़-सुथरी मछलियों को गंदगी से कितने दिन दूर रखा जा सकता है. एक न एक दिन वे भी इस गंदगी को अपना लेती हैं. आज मेरा मन कर रहा है, कि कोई युग पुरुष आए और मुझे व मेरी सभी परछाइयों को जलाकर कर स्वाहा कर दे. जिससे कम से कम मैं अपराध बोध से पल पल मरने के बजाय एक बार में ही चैन की नींद तो सो सकूंगी.

इसके आगे कुछ भी कहना अब मेरे बस की बात नहीं है.

अपनी उत्पत्ति पर पछताती

शहर की एक गंदी झोपड़पट्टी      



   


7 comments:

  1. बिल्कुल सही....सहमत...लेकिन असली दोषी वे लोग हैं जो इन्हें अपने फायदे के लिये इस्तमाल करते रहते हैं..

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  2. पूरी संवेदना से लिखा गया एक श्रेष्ठ पर्यवेक्षक दृष्टि का परिचायक आलेख।

    इस आलेख में साहित्यिक पुट का भी जोरदार तड़का देखने को मिला।

    सुमित जी, आपके लेखन को ऊँचे शिखर पर जाता देख मन प्रसन्न होता है।

    अब आप व्यंग्य लेखन के एक सशक्त हस्ताक्षर रूप में उभर चुके हैं। मुझे गौरव होता है कि मेरी आपसे पहचान है। :)

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    1. शुक्रिया प्रतुल भाई..:)

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  3. अप्रतिम ! अनुपम! अद्वितीय!

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  4. अप्रतिम! अद्वितीय! अनुपम!

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    1. दोहरा शुक्रिया अंक...

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